Tuesday, August 12, 2008

उम्मीद का अकेलापन...

रात की सर्द खामोशी में
दिल की खुरदरी ज़मीन पर
विचारों के अनगिनत बीज
बेवजह बिखरे पड़े थे |

सुबह होने तक
उनमें से कुछ में
उम्मीद के अंकुर फूटे
और वो मिट्टी छोड़ कर
आसमा छूने को तैयार हो गए |

दिन शुरू हुआ तो
वो सभी खुदगर्ज़ पौधे
जो ऊँचाई की अंधी चाह में
अपने वजूद को मिट्टी से
अलग समझ बैठे थे
दोपहर होने तक
जद्दोजहद की गर्मी में झुलस कर
वापिस मिट्टी में जा मिले |

कुछ पौधे गुज़रते काफिलों
के कदमों तले कुचले गए
कुछ ने दूसरों के बहकावे में आकर
अपनी जड़ों को मिट्टी से अलग कर लिया
कुछ अपनी ही कमजोरी का शिकार हुए
और कुछ ने हकीकत से घबरा कर
खुदकशी कर ली |

शाम ढलने तक
सिर्फ़ एक पौधा बचा
जो दिनभर चुपचाप एक कोने में खड़ा
मिट्टी में अपने पाँव जमाए
सूरज को छूने की कोशिश करता रहा था
शाम तक उसका कद
पहले से कुछ बढ़ गया था
लेकिन सुबह से रात होते होते
वो अब अकेला रह गया था |

2 comments:

Sushil said...

Excellent sirji, too gud.
True. Success is a loanly journey.

Rahul said...

thank u sir! :)