Tuesday, October 7, 2008

मंजिल...

वो मंजिल
जिसके लिए तुम जी रहे हो
हर रोज़, हर घड़ी
हर कदम, हर साँस
उसकी तरफ़ बढ़ रहे हो |

जिसके लिए तुमने अपना सब कुछ
दांव पर लगा छोड़ा है
जिसकी आरज़ू में जितना भी
तुम तड़प रहे हो थोड़ा है |

वो मंजिल
जो तुम्हें तुम्हारी सरहदों से
बहुत दूर खींच लाई है
जिसने तुम्हें दौड़ाया ज़्यादा
मगर प्यास कम बुझाई है |

नींद से जागो, आखें खोलो
और ज़रा देखो के वो मंजिल ख़ुद
कई रास्तों में उलझी हुई
किसी और मंजिल को ढूँढ रही है |

ज़रा ठहरो, ज़रा साँस लो, ज़रा समझो
जो भी रास्ता तुम चुनोगे
जिस भी ओर तुम बढोगे
वो मंजिल तुम्हारे साथ एगी |

1 comment:

Sushil said...

Wow! sir, so many good poems coming out of your treasure these days. And the pictures u put for each make it more beautiful.